14TH JPSC PRE & MAINS भारत में अंग्रेजी काल में आर्थिक नीति ECONOMIC POLICY OF BRITISH INDIA


🌹RENESHA IAS🌹 
 ARTICLES BY RAVI SIR (DIRECTOR RENESHA IAS)
 9661163344... 14th JPSC FOUNDATION BATCH 

👉 स्टार्ट हो चुके हैं

Join paid batch 
9661163344
🌹भारत में अंग्रेजी काल में आर्थिक नीति🌹

PART 01 MORDERN HISTORY
By Ravi Sir
DIRECTOR 
RENESHA IAS
9661163344

रजनीपाम दत्त मार्क्सवादी विचारधारा के इतिहासकार हैं उन्होंने अपनी पुस्तक इंडिया टुडे मेंअंग्रेजों द्वारा भारत के आर्थिक शोषण के तीन स्पष्ट चरणों के बारे में बताया है.

1) वाणिज्यवाद का काल 1757 से 1813
2) स्वतंत्र व्यापारिक पूंजीवाद का काल 1813 से 1858
3) वित्त पूंजीवाद का काल 1858 के बाद

     पहले इन तीनों कालों के बारे में संक्षेप में जान लेते हैं.... 


 पहले वाले चरण में ईस्ट इंडिया कंपनी का भारत में एकाधिकार था. इस काल में धन का निकास हुआ. 

इसके बाद स्वतंत्र व्यापारिक पूंजीवाद के काल में कंपनी का शासन तो बना रहा लेकिन कंपनी के एकाधिकार समाप्त हुए. ईस्ट इंडिया कंपनी के अलावा अन्य कंपनियों का भी भारत में आगमन हुआ और भारत का शोषण अधिक बढ़ा. 

वित्त पूंजीवाद के काल में भारत में रेलवे बैंकिंग और उद्योगों की स्थापना होने लगे. इससे भारतीय पूंजी का प्रयोग नहीं किया गया बल्कि ब्रिटेन के पूंजी का प्रयोग किया गया. 

           दूसरे शब्दों में पहले दो चरण में जहां सिर्फ कंपनियों के द्वारा शोषण किया जा रहा था अब ब्रिटेन के आम जनता के द्वारा भी भारत में शोषण की प्रक्रिया शुरू हो गई. क्योंकि सभी लोगों को भारत के अलग-अलग प्रोजेक्ट में पैसे लगाकर उच्च लाभांश देने का आश्वासन दिया गया.

🌹प्रथम चरण🌹

 वाणिज्यवाद के काल के भी दो स्पष्ट भाग थे

1) प्रथम चरण के पहले भाग में ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा भारत से अलग-अलग तरह के वस्तुओं को खरीदा गया और ब्रिटेन सहित अन्य यूरोपीय देशों में ले जाकर बेचा गया.
. कंपनी इस दौरान निश्चित रूप से भारत के किसानों और कारीगरों का शोषण करते थे फिर भी भारत का सामान बाहर विक्रय हो रहा था यह राहत की बात थी

2) प्रथम चरण के दूसरे भाग ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी इस कारण भारत से निर्मित सामानों की आवश्यकता ब्रिटेन को नहीं थी बल्कि कच्चे माल की आवश्यकता थी.

परिस्थितियों में इस परिवर्तन के कारण भारत के अर्थव्यवस्था अब पूरी तरीके से नष्ट हो चुके थे.

 औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था के प्रथम चरण में ही धन निकास (drain of wealth DOW) की अवधारणा का उदय हुआ.

* प्लासी के युद्ध के बाद 1757 में कंपनी का अधिकार जैसे ही बंगाल पर हो जाता है धन निकास की प्रक्रिया शुरू हो जाते हैं.
 मुगलों की द्वारा जो कंपनी को दस्तक प्रदान किए गए थे उसके दुरुपयोग के द्वारा भी भारी धनराशि कंपनी के अधिकारियों और कर्मचारियों के द्वारा आयोजित कर ली गई थी.

(दस्तक....यह व्यापार का अधिकार था.. इसके कारण कंपनीकिसी भी तरह के व्यापारिक शुल्क से मुक्त थे...लेकिन इसका प्रयोग निजी लाभ के लिए नहीं किया जा सकता था ना ही दूसरे को हस्तांतरित किया जा सकता था)

* कंपनी के द्वारा दस्तक को भारतीयों के हाथों बेचकर भारी धनराशि आयोजित की जाती थी.

* DOW "

भारत के धन का अवैध रूप से ब्रिटेन की ओर प्रवाह और बदले में भारत को कुछ नहीं प्राप्त होना"
 इससे भारत के कुछ राष्ट्रवादियों और और अर्थशास्त्रियों के द्वारा धन निकास की संज्ञा दी गई थी.

👉 1757 - 1765 के बीच बंगाल के नवाबों ने कंपनी को 60 लाख पौंड का वार्षिक उपहार प्रदान किया था.
👉 1765-1771 के बीच बंगाल से जितने भी राजस्व कंपनी ने अर्जित किए थे उसमें से 40 लाख पौंड कंपनी ने हड़प लिया था और ब्रिटेन भेज दिया था.
👉 अर्पित अर्थ के अनुसार कंपनी के द्वारा प्रतिवर्ष औसत रूप से 30 से 40 करोड रुपए ब्रिटेन को भेजे गए.
👉 कंपनी के द्वारा भारतीयों से कई तरीकों से धन प्राप्त किया जाता था जैसे
1) भू राजस्व व्यवस्था में ली जाने वाली अतिरिक्त राशि
2) भारतीय मंडियों से प्राप्त धन
3) कंपनियों के अधिकारियों के द्वारा वसूली गई धनराशि
4) ईस्ट इंडिया कंपनी के शेयरधारकों को लाभांश के रूप में भारी धनराशि का भुगतान
5) ब्रिटेन के बैंकिंग बीमा और नौ परिवहन कंपनियों के द्वारा अर्जित किया गया करोड़ों की धनराशि
6) ब्रिटिश लोगों के भारत में नियुक्ति के दौरान वेतन और बाद में पेंशन

 उपरोक्त सभी धन राशियां धन निकाल के रूप में भारत से ब्रिटेन की ओर से अविरल प्रवाहित हो रहे थे.

 धन निकास को स्पष्ट रूप से लोगों को ध्यान में लाने का श्रेय दादाभाई नौरोजी को जाता हैm

* 2 मई 2867 को ईस्ट इंडिया एसोसिएशन के बैठक में दादाभाई नरोजी ने अपनी पुस्तक इंग्लैंड debt टू इंडिया में पहली बार धन
 निष्कासन की चर्चा की गई थी.

 इसके बाद उन्होंने अन्य पुस्तकों में भी जैसे

👉 पॉवर्टी एंड अनब्रिटिश रूल इन इंडिया
👉 द वांट्स एंड मींस ऑफ इंडिया
👉 ऑन the कॉमर्स ऑफ इंडिया

 धन निकास के निरंतर चर्चा करते रहे.

 दादाभाई नरोजी ने धन निष्कासन को evil of all evils कहा. इन्होंने नैतिक निकास की भी संज्ञा दी.

DBN ने कहा कि

" भारत का धन बाहर जाता है और वह धन पुनः ऋण के रूप में भारत वापस आता है... विदेश का ब्याज भारत को चुकाना पड़ता है और एक कुचक्र बन जाता है"

 इसी प्रकार आरसी दत्त ने अपनी पुस्तक "इकोनामिक हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया" में धन निकास की चर्चा की है.

  मद्रास के रेवेन्यू बोर्ड के अध्यक्ष जॉन सुलीवन के अनुसार

" हमारी व्यवस्था कुछ स्पंज की तरह काम करती है जिसमें गंगा तट से अच्छी चीजों को सोंख लिया जाता है टेम्स नदी में ले जाकर उसे ने निचोड़ दिया जाता है"

 गोपाल कृष्ण गोखले GKG के द्वारा 1921 में में इंपिरियल काउंसिल में पहली बार धन निष्कासन के सिद्धांत को प्रस्तुत किया गया.

 🌹डीइंडस्ट्राइलाइजेशन🌹

 भारत में 1800-1850 के समय को उन अनौद्योगीकरण का युग माना जाता है.शुरू में ही मैंने आपको बताया कि भारत में पूंजीवाद और इंडस्ट्राइलाइजेशन सभी पूर्व स्थितियां विद्यमान थी. 18 वीं सदी के अंत में पूरे विश्व में ज़ब औद्योगिकीकरण हो रहा था तो निश्चित रूप से भारत में भी इंडस्ट्रियल लाइजेशन प्रक्रिया शुरू हो जाते. लेकिन अंग्रेजों की शोषणकारी नीतियों के कारण या संभव नहीं हो पाया.

 1813 के अधिनियम में ब्रिटिश संसद ने

👉 चाय के व्यापार
👉 और चीन के साथ व्यापार को छोड़कर

 ईस्ट इंडिया कंपनी के समस्त एकाधिकारों को समाप्त कर दिया. 1833 के अधिनियम में कंपनी के समस्त व्यापारिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया इसके पास सिर्फ राजनीतिक अधिकार रहे. इसका प्रभाव यह हुआ कि

" ब्रिटिश पूंजी पतियों के प्रत्येक वर्ग को भारत के सभी गांव शहर जंगल खान कृषि उद्योग इत्यादि के शोषण की खुली छूट मिल गई"

 भारत से विनिर्मित वस्तुओं के जो थोड़े बहुत निर्यात अब वह लगभग समाप्त हो चुका था और उसकी जगह भारत सिर्फ कच्चे माल का निर्यातक बन गया था. ब्रिटेन के उद्योगों में निर्मित समान भारतीय वस्तुओं के अपेक्षा अत्यधिक सस्ते होते थे और इन पर भारत सरकार आयात शुल्क भी नहीं लगाती थी . इसके अलावा यहां के जमींदार राजा महाराजा नवाब और अन्य उच्च वर्ग के लोग भी ब्रिटिश वस्तुओं को संरक्षण देने लगे.इसके कारण भारत में बाजार ब्रिटेन के वस्त्र एवं अन्य वस्तुओं से भर गया.

 इस स्थिति के बारे में

1) तत्कालीन गवर्नर जनरल विलियम बैटिंग 1834 में कहा

" इस आर्थिक दुर्दशा का व्यापार के इतिहास में कोई भी उदाहरण नहीं है... भारतीय बुनकरों की हड्डियां भारत के मैदानों में बिखरी पड़ी हुई हैं"

2) कार्ल मार्क्स
 ने कहा कि

" अंग्रेजों ने भारत के करघा और चरखा को तोड़ डाला"

 अंग्रेजों ने भारतीय निर्मित वस्त्र और अन्य वस्तुओं पहले ब्रिटेन और यूरोप के देशों से बाहर किया. उसके बाद भारत के आंतरिक बाजार से भी भारतीय सामानों को बाहर कर दिया.

 लेकिन मॉरिस डी मौरिस जैसे अमेरिकी अर्थशास्त्रियों का कुछ अलग विचार है...

" अंग्रेजों के कारण भारत में उन आर्थिक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिला जैसा भारत में कभी पहले संभव नहीं हुआ था"

 लेकिन इसमें दो मत नहीं है कि कंपनी और ब्रिटेन के पूंजी पतियों ने भारतीय हस्तशिल्प उद्योग एवं अन्य छोटे छोटे उद्योगों को नष्ट कर दिया.

" जो भारत अपनी संपदा और समृद्धि से पहले विदेशियों को आकर्षित करता था..अब यही देश गरीबी बीमारी भुखमरी और अकाल के रूप में जाना जाने लगा"

 "कृषि का वाणिज्यकरण"

 भारत कच्चा माल का निर्यातक बन चुका था और इसके छोटे-छोटे उद्योग नष्ट हो चुके थे. इस स्थिति में भारतीय पुनः कृषि की ओर आकर्षित हुए. भारत एक कृषि प्रधान देश बन चुका था. ब्रिटिश सरकार की भूमि नीतियों के कारण

👉 किसानों को नगद लगान देना पड़ता था
👉 ब्रिटेन में औद्योगिकरण की प्रक्रिया के कारण भारत से नगदी फसलों की मांग भी बढ़ रहे थे जिसकी कीमत अधिक प्राप्त होते थे

 नगदी फसलों को तुरंत बाजार में बेचा जा सकता था और अधिक पैसे के लालच में किसानों के द्वारा नगदी फसलों का रोपण किया गया.जिससे वह लगान देख कर भी कुछ अधिशेष लाभ अर्जित कर सकें.

👉 कपास जुट तिलहन गन्ना मूंगफली तंबाकू चाय रबड़.. जैसे वाणिज्यिक फसलों का उत्पादन बढ़ा
👉 खाद्यान्न फसलों का उत्पादन घटा

 इनके कारण भारत में कई बड़े बड़े आकाल उत्पन्न हुए. ऐसा नहीं था कि वाणिज्यिक फसलों के उत्पादन के बाद किसान बहुत सम्मिलित हो गए बल्कि धीरे-धीरे अत्यधिक ऋण लेने के कारण ऋण ग्रस्त होते गए. इस दौरान यही कारण था कि कई कृषक विद्रोही भारत में हुए.

 डेनियल थारनर ने

" 1890 -1947 के समय को भारतीय कृषि की स्थिरता का काल कहा है"

RENESHA IAS 
9661163344

🌹 भारत में विदेशी पूंजी का आगमन🌹

 औद्योगिक क्रांति के बाद ब्रिटेन और यूरोप के देशों में पूंजी का अत्यधिक निर्माण हो रहा था. अब यह संभव नहीं रहा कि ब्रिटेन में हिंदी का निवेश किया जाए. इस स्थिति में अब ब्रिटेन के पूंजीपतियों का ध्यान भारत की ओर गया. इस दौरान पूंजी पतियों का एक छोटा सा वर्ग का उदय भारत में भी हो रहा था.

 भारत एक पिछड़ा देश था.. यहां पर अलग-अलग क्षेत्रों में निवेश की अत्यधिक संभावनाएं थे जैसे

👉 आधारभूत ढांचा के क्षेत्र में
* रेलवे बंदरगाह सड़क
👉 बैंकिंग वित्तीय और बीमा कंपनियों में
👉 औद्योगिक क्षेत्रों में

 इसके अलावा अगर रेलवे का विकास होता तो भारत में उत्पन्न हो रहे विद्रोह को दबाने में भीअंग्रेजों को मदद मिलती .

 भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग 1846 में रेलवे की योजना प्रस्तुत करते समय कहा था कि

" रेलवे का अगर बेहतर विकास हो गया तो किसी विद्रोह की स्थिति में अथवा साम्राज्य को किसी भी खतरे की स्थिति में इस पर यथाशीघ्र नियंत्रण पाया जा सकता है"

 इसके अलावा कच्चे माल की धुलाई में भी रेल मार्ग अत्यधिक मदद करने वाला था. अतः भारत के प्रारंभिक रेल मार्ग ऐसे क्षेत्रों में बने जो कच्चे माल में सम्मिलित थे.

 रेल मार्ग के निर्माण में ब्रिटिश सरकार के द्वारा अत्यधिक खर्च किया गया और इसके लिए भारतीय पूंजी की जगह ब्रिटिश पूंजी पतियों के पूंजी को महत्व दिया गया. ब्रिटेन के नागरिकों को प्रत्याभूत ब्याज (guaranteed interest) प्रदान किए गए

 गारंटीड इंटरेस्ट का यह अर्थ था कि जिस व्यक्ति ने पूंजी निवेश किया है उसे एक न्यूनतम लाभांश जरूर प्रदान किया जाना था. दूसरे शब्दों में अगर ब्रिटिश सरकार को रेलवे के निर्माण के दौरान नुकसान भी उठाना पड़ता है तो भी एक लाभांश देना जरूरी था.
 यह लाभांश भारतीय करदाताओं से वसूली गए करो के माध्यम से दिए गए.

 पूरी तरीके से स्पष्ट था कि ब्रिटिश सरकार ने अपने वाणिज्यिक सामरिक और आर्थिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए रेलवे का विस्तार किया था. लेकिन कार्ल मार्क्स ने कहा था कि 

" आप भारत देश एक विशाल देश में रेलवे का जाल बिना उसके उद्योगों को बढ़ने का अवसर दिए बिना नहीं बिछा सकते हैं... आज है कल यही रेलवे व्यवस्था भारत के आधुनिक युग का अग्रदूत बन जाएगा"

( कार्ल मार्क्स के यह स्टेटमेंट 1853 में तब आए थे जब मुंबई और ठाणे के बीच भारत में पहला रेलवे चला था)

 कार्ल मार्क्स एक कथन शत प्रतिशत सही हुए और भारतीय रेलवे ने भारत के

👉 विकास में तो सहायता प्रदान की ही
👉 इसके अलावा भारतीय राष्ट्रवाद के उदय में भी भारतीय रेलवे का महत्वपूर्ण योगदान रहा.
👉 इतना ही नहीं भारतीय रेलवे पूरे देश के एकीकरण में भी सहायक बना.

 रेलवे के बाद अगर देखा जाए तो ब्रिटिश पूंजीपतियों ने भारत में उद्योगों में भी निवेश किया. कृषि क्षेत्र में निवेश के प्रति रुचि नहीं दिखाई गई.

Part II


🌹 भारत में पूंजीवाद का विकास🌹

 तमाम बाधाओं के बावजूद भारत में भी पूंजीवाद का विकास धीरे-धीरे हो रहा था.

1) भारत में सूती वस्त्र के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में गुजरात और मुंबई अपनी अलग पहचान बना रहे थे.

👉 सूती वस्त्र की पहली मिल 1853 में मुंबई में स्थापित हुई थी. कावसजी नानाभाई के प्रयासों से यह संभव हुआ था.

👉 1905 तक भारत में कुल 266 सूती वस्त्र मिल स्थापित हो चुके थे.
👉 बीसवीं सदी के शुरू में चलने वाला स्वदेशी आंदोलन 1905 ने कपड़ा उद्योग को प्रोत्साहित किया था.


2) इसी तरह बंगाल के सिरसा नामक स्थान पर 1855 में पहले जूट मिल की स्थापना हुई.

3) 1907 में झारखंड के टाटानगर में टाटा आयरन एंड स्टील कंपनी TISCO की स्थापना हुई. यहां 1911 से कच्चा लोहा और 1913 से इस बात का निर्माण शुरू हो गया.

4) भारत में बैंकिंग के क्षेत्र में भी विकास शुरू हुए. भारत का पहला महत्वपूर्ण बैंक पंजाब नेशनल बैंक था जिसकी स्थापना 1895 में हुई थी.
 इसके बाद कई अन्य बैंकों की स्थापना हुई जैसे

* 1906 बैंक ऑफ इंडिया
* 1907 इंडियन बैंक
* 1911 सेंट्रल बैंक

 प्रथम विश्व युद्ध Ist ww भारतीय उद्योग के लिए सकारात्मक रहा.
इस दौरान यूरोप और अमेरिका के उद्योग विश्व युद्ध के कारण प्रभावित हुए थे और भारत से सामानों के डिमांड बढ़ गए थे.

👉 1916 में भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड हार्डिंग के प्रयासों से सर थॉमस हॉलैंड आयोग बना. यह भारत का पहला औद्योगिक का आयोग था.

👉 दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भी भारतीय उद्योगों को अत्यधिक लाभ हुआ.

🌹 ब्रिटिश आर्थिक नीति और कृषि🌹

1) PERMANENT SETTLEMENT 

 1765 में बक्सर के युद्ध के बाद इलाहाबाद की संधि हुई थी. इसमें कंपनी को बंगाल बिहार और उड़ीसा के भू राजस्व के प्रशासन के अधिकार मिल गए थे.

👉 प्रथम चरण में 5 वर्षों के लिए लगान संग्रहण का अधिकार कंपनी के द्वारा कुछ प्रभावी लोगों को दिया गया.
👉 दूसरे चरण में 5 वर्ष की व्यवस्था समाप्त कर दी गई और 1 वर्ष के लिए भू राजस्व संग्रहण के अधिकार को नीलाम कर दिया गया.

 लेकिन ऐसे व्यवस्थाओं के कारण

👉 भारतीय किसान खुश नहीं थी
👉 बंगाल क्षेत्र में निरंतर अकालों के आगमन ने आर्थिक स्थिति खराब कर दी थी

 इसके बाद लॉर्ड कार्नवालिस को अंग्रेजी सरकार ने गवर्नर जनरल बनाकर भारत भेजा. कार्नवालिस ने विचार किया कि

* भूराजस्व में अंग्रेजों का क्या उचित हिस्सा होना चाहिए?
* भारत में भू स्वामी land owner ने किसे माना जाए?

 सर जॉन शॉर के सहायता से कार्नवालिस में बंगाल में स्थायी भूमि कर व्यवस्था permanent settlement लागू करने का फैसला लिया.

👉 10 February 1790 से यह व्यवस्था प्रायोगिक तौर पर 10 वर्षों के लिए लागू किया गया..
👉 लेकिन इसकी सफलता को देखते हुए 1793 में ही इसे परमानेंट सेटेलमेंट में बदल दिया गया

 इस व्यवस्था में जमींदारों को भूस्वामी माना गया. इस व्यवस्था के कई लाभ हुए

* लगान वसूली की अनिश्चितता दूर हुई
* जमींदारों का समर्थन अंग्रेजों को प्राप्त हुआ
* कृषि क्षेत्र को प्रोत्साहन मिला क्योंकि उस समय कृषकों के लिए इससे बेहतर व्यवस्था नहीं मिल सकती थी.

 इसमें कृषि उत्पादन हो या नहीं हो एक निश्चित राशि जमींदारों के माध्यम से कंपनी को प्राप्त होते थे. कुल लगान का 1/11 भाग जमींदारों को और 10/11 भाग कंपनी को प्राप्त होता था.

 ब्रिटिश भारत के कुल कृषि योग्य भूमि का 19% भाग स्थाई बंदोबस्त व्यवस्था के अंतर्गत था. अगर कोई जमींदार निश्चित समय पर अपने लगा नहीं दे पाता था तो उसकी जमींदारी नीलाम कर दी जाती थी.1794 में इसके लिए सूर्यास्त कानून बनाया गया था.
. बहुत सारे जमींदारों के जमींदारया नीलाम हो गई. इस प्रकार जमीन कोलकाता के धनी वर्गों के हाथों में चला गया. उन वर्गों ने किसानों का पहले से भी ज्यादा शोषण किया.

👉 परमानेंट सेटेलमेंट व्यवस्था बंगाल बिहार उड़ीसा उत्तर प्रदेश के बनारस और उत्तरी कर्नाटक में लागू थे.

 1955 में West Bangal acquisition of estates act 1955 के द्वारा जमींदारों को मुआवजा देकर स्थाई बंदोबस्त की व्यवस्था समाप्त कर दी गई.

🌹 रैयतवाड़ी भू व्यवस्था RW 🌹

 स्थाई बंदोबस्त की कई समस्याओं के कारण इस व्यवस्था को लांच किया गया. मद्रास के तत्कालीन गवर्नर थॉमस मुनरो और कैप्टन रीड को इस व्यवस्था को लागू करने का श्रेय जाता है.

 इसमें किसानों को भूस्वामी माना गया था.

👉 कैप्टन रीड ने 1792 में सबसे पहले से बारामहल (तमिल नाडु)जिला में लागू किया था.
👉 इसके बाद यह मद्रास मुंबई बरार बर्मा आसाम और कुर्ग ( कर्नाटक) के कुछ हिस्सों में लागु हुए थे.

 यह ब्रिटिश भारत के कुल कृषि भूमि के का 51 प्रतिशत भाग पर लागू था.
 रैयत के कुल उत्पादन 33% से 55% के बीच लगान लिए जाते थे.

🌹महलवारी व्यवस्था MW🌹

 इस भूमि व्यवस्था में पूरे ग्राम को भूस्वामी माना जाता था. इसमें गांव के प्रमुख सरकार के साथ समझौते करते थे और गांव में जिस किसान का जितना जमीन होता था उसके अनुसार उन्हें लगान देना पड़ता था.

 ब्रिटिश भारत के कृषि भूमि का 30% भाग महालवारी व्यवस्था के अंतर्गत शामिल था. इसमें दक्कन के कुछ जिलों, उत्तर भारत आगरा, अवध, पंजाब,मध्य प्रांत इत्यादि शामिल थे.

 इस प्रकार ब्रिटिश आर्थिक नीति ने भारत की आर्थिक स्थिति को अत्यधिक कमजोर कर दिया था. स्वतंत्रता के बाद निरंतर इसमें सुधार के प्रयास जारी हैं.

Thanks a lot 

Comments

Popular posts from this blog

IRRIGATION IN JHARKHAND झारखंड में सिंचाई के साधन JPSC PRE PAPER 2 AND JPSC MAINS

मुंडा शासन व्यवस्था JPSC

🌹 नागवंशी शासन व्यवस्था JPSC PRELIMS 🌹